कभी प्रकाशक की तलाश में भटकते लेखक, आज खुद अपनी किताबें छपवाने में सक्षम हैं। लेकिन ‘सेल्फ पब्लिशिंग’ और ‘सिर्फ मुद्रण’ के बीच जो महीन रेखा है, वही अक्सर लेखक के सपनों को भाप बना देती है। आइए, व्यंग्य के हल्के फुल्के चश्मे से देखते हैं इस भ्रम की पूरी कथा!
एक दिन एक लेखक महोदय बड़े गम्भीर लहजे में बोले,
“भाई साहब, ये जो सेल्फ पब्लिशिंग वाले हैं, ये कोई प्रकाशक-वकाशक नहीं होते। ये तो बस सीधे-सीधे मुद्रक हैं। पैसा लो, किताब छापो, और निकल लो!”
मैंने अपनी आवाज में गंभीरता लाते हुए पूछा,
“तो फिर मुद्रक कौन होता है?”
बड़े आत्मविश्वास से उत्तर मिला,
“जो पैसे लेकर छाप दे, वही मुद्रक। प्रकाशक तो वो होता है जो लेखक की काबिलियत पर भरोसा करके खुद पैसे लगाए, रॉयल्टी दे, प्रचार करे और लेखक को साहित्य सम्राट बना देता है।”
मैंने मुस्कराकर कहा,
“महोदय, जिस मुद्रक की आप बात कर रहे हैं, वो तो बस इतना कहता है, PDF दो, पैसे दो, और छपाई लो। न कवर बनाता है, न ISBN देता, न डिज़ाइन, न मार्केटिंग, न लिस्टिंग... और हाँ, वितरण का तो नाम मत लीजिए। और जिस प्रकाशक की आप बात कर रहे हैं, वो आपके जैसे लेखकों के कॉल या ईमेल का रिप्लाई देना भी पसंद नहीं करते हैं। यदि आपको ऐसा प्रतीत होता है कि आप बहुत बड़े लेखक हैं तो कृपया वहीं संपर्क करें।”
“जबकि सेल्फ पब्लिशिंग प्रकाशक तो पूरी प्रक्रिया में साथ देते हैं,
कवर डिज़ाइन से लेकर इनर लेआउट, ISBN, Amazon-Flipkart पर लिस्टिंग, सोशल मीडिया प्रचार, बिक्री रिपोर्ट, डैशबोर्ड, यहाँ तक कि लेखक की प्रोफाइल फोटो तक सुंदर बना देते हैं।”
“अब इसे सिर्फ ‘मुद्रण’ कह देना, तो जैसे बिरयानी को सिर्फ ‘चावल’ कह देना हुआ, है न?” 😄
लेखक महोदय थोड़े हड़बड़ा गए, गला साफ़ करते हुए बोले,
“तो मतलब ये भी प्रकाशक ही हैं? लेकिन ये पैसे क्यों लेते हैं?”
मैंने मुस्कराकर जवाब दिया,
“भैया, ये हैं डिजिटल युग के सेवा-आधारित प्रकाशक, जो पैसा लेकर सेवाएं देते हैं।
वहीं पारंपरिक प्रकाशक (Traditional Publishers) खुद निवेश करते हैं, लेकिन बहुत सीमित और चुने हुए लेखकों को ही अवसर देते हैं। उन्हें तो आप ‘एलिट क्लब’ वाले प्रकाशक भी कह सकते हैं, जो केवल गिने-चुने लोगों को अपनाते हैं।”
अगले कुछ दिनों बाद फिर उन्हीं लेखक जी का दोबारा से फोन आया,
“आपसे बात करके कुछ बाते समझ आई तो मैंने सीधे मुद्रक से किताब छपवा ली है, अब बस आपके माध्यम से ईकामर्स वेबसाइटस पर बेचनी है।”
मैंने कहा,
“भाईसाहब, जब आपने सिर्फ छपवा ही ली है, और जहाँ से छपवाई है तो बेचने की उम्मीद भी उसी से कीजिए।
जब सेल्फ पब्लिशिंग को ‘मात्र मुद्रण सेवा’ कहते हैं, तो असली मुद्रक से भी पूरी उम्मीद रखना चाहिए।”
उधर से लंबी चुप्पी... फिर धीमी आवाज़ में बोले,
“असल में... वहाँ से सिर्फ छपवा पाए। उन्होंने कहा कि हम सिर्फ छापते हैं, लिस्टिंग-विस्टिंग हमारा काम नहीं है।”
मैंने कहा,
“यही फर्क है।
एक सिर्फ कागज़ पर स्याही उड़ेलता है,
और दूसरा, सपनों को किताब बनाता है।
सेल्फ पब्लिशर को 'मुद्रक' कह देना, जैसे फिल्म निर्देशक को कैमरा मैन कह देना! उस मेहनत और प्रक्रिया का अपमान है जो एक लेखक की कृति को दुनिया के सामने लाने में लगती है।”
और जब लेखक ने मुद्रक से थोड़ा डिस्काउंट माँग लिया, तो जवाब मिला,
“काली स्याही महंगी हो गई है, कागज़ का रेट आसमान छू रहा है, और मज़दूर छुट्टी पर हैं। ऊपर से आप डिस्काउंट मांग रहे हैं?” 😅
तभी समझ आया,
सेल्फ पब्लिशिंग वाले लूट नहीं रहे, समझा रहे हैं।
और मुद्रक?
वो आज भी वही पुराना राग अलापते हैं,
“छाप दी किताब, अब लेखक जाने और उसका भगवान!”