हसरत-ए-अरमां

 चले थे बड़े गुमां के साथ

दिल में हसरत-ए-अरमां लिए

तलाश-ए-मजिल की

निकल पड़े अन्जां राह पर....

निकल आये बहुत दूर कि

दिखाई दी वीराने में

धुंध रोशनी सी

और धुधंली सी राह....

लेकिन जमाने की बेरूखी

और गन्दी सोच तो देखिये

बिछा दिये काटें राह में

जमाने का दस्तूर है ये तो

कसर ना छोड़ी राह ने भी

ठोकरे देने में हमें....

लेकिन चलते रहे फिर भी

हसरत-ए-अरमां लिए

कि जमाने को दिखा देंगे

कम नही तुझसे हम भी....

खुश हुए पलभर के लिए

कि हरा दिया जमाने को हमने

मंजिल-ए-करीब थे जब....

लेकिन देखिये तो सही

जिगर-ए-राजन

छोड़ आये मंजिल को

खुशी के लिए जमाने की

और हार गये जीत कर भी

हम जमाने से!!!


(यह कविता मैंने वर्ष 2010 में उन दिनों लिखा था, जब मैं अपनी पत्रिका के रजिस्ट्रेशन के लिए सूचना विभाग में चक्कर काट रहा था, क्योंकि मेरे पास इतने रूपये नहीं थे कि मैं रिश्वत दे पाता, क्योंकि पत्रिका शुरू करना मेरा सपना था। उन दिनों मैं मात्र पन्द्रह सौ रूपये महीने में एक दुकान पर काम करता था। अपनी परिस्थितियों के कारण बिना रिश्वत के ही अपनी पत्रिका को पंजीकरण कराने का प्रयास कर रहा था। रिश्वत न दे पाने के कारण मेरे पंजीकरण को लगभग दो वर्षों तक लंबित रखा गया।)

4 Comments

Your thoughts are appreciated—thanks for commenting!

  1. इस कविता के भाव, लय और अर्थ काफ़ी पसंद आए। बिल्कुल नए अंदाज़ में आपने एक भावपूरित रचना लिखी है।

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  2. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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  3. Ji, Thanx, Ye Thodi Si Koshish Ki Thi.....

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  4. मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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