1857 और आज

 आज हम कितने स्वार्थी हो गये है। हमारे पास किसी के लिए वक्त नही है, यहाँ तक कि अपने बच्चों और अपने माता-पिता के लिए भी वक्त नही होता है। इससे साफ जाहिर होता है कि हमारे कदम पश्चिमी सभ्यता की ओर अग्रसर होते जा रहे है। पश्चिमी सभ्यता हमारे जीवन में अन्जाने में ही अपना वर्चस्व बढ़ा रही है। उदाहरण के तौर पर ही देख लिजिए 1857 के महासंग्राम को हमारे देश में सिर्फ एक दिन 10 मई को मनाया जाता है, वो भी इसलिए कि ताकि फार्मेलिटी पूरी की जा सके। लेकिन हम और हमारा समाज उस क्रान्ति के मनसूबों को अगर ध्यान से समझे तो समझ आयेगा कि उस क्रान्ति का मतलब सिर्फ अंग्रेजो को भगाना ही नही था, बल्कि अपने देश के उद्योग-धन्धें, शिक्षा, खेती, परम्पराओं की रक्षा व अन्य भारतीय संपदाओं की सुरक्षा भी था।

जिसका उपयोग अंग्रेजी हूकूमत अपने देश व अपने लोगो के लिए कर रही थी। यदि 1857 के महासंग्राम के वीर क्रान्तिकारी अगर आज जीवित होते तो शायद भारत की यह स्थिति देखकर बहुत दुखी होते। उन्हे अपना व अपने परिवार के साथ अपने लोगो का बलिदान बेकार लगता क्योकि आज भी भारत गुलाम है। विदेशी कपड़ो का, विदेशी ब्रांडेड गेजेट्स का, विदेशी संस्कृति का और विदेशी जैसा दिखने या बनने की इच्छा का। उदाहरण के तौर पर भारतीय बाजारों को ही देख लिजिए जिसमें अधिकतर विदेशी कंपनियाँ भारत के बाजारों पर अपना कब्जा जमाए हुए है, चाहे कपड़ो का बाजार हो या इलेक्ट्रोनिक्स का हो। कहने का मतलब यह है कि शायद ही कुछ ही क्षेत्र ऐसा होगा जिसमें विदेशियों का हाथ ना हो। शायद सरकार को इससे क्या लेना-देना है कि इससे भारत के उद्योग-धन्द्यो पर क्या फर्क पड़ रहा है और कितने लोग बेरोजगार हो जाते है या कितनी भारतीय कंपनियाँ बंद हो जाती है। 

क्या इसी दिन के लिए महासंग्राम के सेनानियों ने देश से भगाने का प्रयास किया था कि विदेशी कंपनियाँ भारत के बाजारों पर अपना कब्जा जमायें और भारत के कुटीर उद्योगों व लघु उद्योगों को जंग लग जाये। क्या इसलिए महासंग्राम को अंजाम दिया गया था कि भारतीय संस्कृति को भूलकर पश्चिमी सभ्यता को अपने रग-रग में बसा ले। यदि उन्हे ऐसा करना होता तो वे अंग्रेजी हूकूमत की आँखों के तारे होते व अंग्रेजी हूकूमत उन्हे बड़ी जागिर दे देती और शाही जीवन गुजारते। क्या हमें यह आजाद भारत नसीब हो पाता? क्या हम अपनी मर्जी के मालिक होते? हमें कुछ भी सरकार से मनवाना हो तो हम ध्रना प्रदर्शन शुरू कर देते है या हड़ताल कर देते है। क्या तब कर पाते जब भारत गुलाम होता। नही! तब तो अपनी जान ही गवानी पड़ती।

जरा सोचिए, 1857 के महासंग्राम में हमारे वीर सेनानियों ने अपने देश के लिए अपनी जान व अपने परिवार का बलिदान कर दिया, जबकि भारत गुलाम था फिर भी अंग्रेजी हूकूमत के सामने अपने घूटने नही टेके। लेकिन आज तो हम आजाद है फिर क्यों हम पश्चिमी सभ्यता को अपने जीवन मंे जगह दे रहे है? क्यों विदेशी कंपनियों के प्रोडक्ट को इस्तेमाल करने में अपनी शान समझते है? क्यों विदेशी मुल्को की तरक्की की तारिफ करते नही थकते? क्यों अपने देश की परम्पराओं और संस्कृति में रहकर खुद को अपमानित महसूस करते है?

क्योकि हम अपने देश को आज सिर्फ आजाद देख रहे है, लेकिन यह हमारी सिर्फ गलतफहमी है। विदेशी सभ्यता और विदेशी लोग अब हमें अपनी हूकूमत से नही बल्कि मानसिक तौर पर गुलाम बना रहे है और हम बन रहे है। वो भी बहुत ही मजे में। इसकी वजह हमारी संर्कीण मानसिकता है। यदि हम अपने देश के उत्पादन का इस्तेमाल करें तो क्या हमारा देश अन्य विकसित देशो की श्रेणी में नही आ जायेगा। सदियों से हमारे देश की संस्कृति और परम्पराओं की विदेशों मे भी चर्चा रही है और होती भी है तो हम अपनी संस्कृति को लेकर गर्व क्यो नही करते।

हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा और महासंग्राम के वीरों की कुर्बानियों को याद करना होगा। साथ ही यह भी समझना होगा कि इस महासंग्राम का उद्देश्य सिर्फ अंग्रेजो को भगाना ही नही था, बल्कि अपने देश की संस्कृति व परम्पराओं को जिन्दा रखना, उद्योगों, शिक्षा, खेती और संपत्ति को बचाना भी था। उनकी कुर्बानी को बेकार नही जाने देना होगा ताकि वे हमेशा अमर रहे।

1857 के वीर सेनानियों को कोटि-कोटि नमन्।

(मैने वर्ष 2010 में एक हिन्दी मासिक पत्रिका 'अक्षय गौरव' की शुरूवात की थी, तब उसके संपादकीय अपनी बात में प्रकाशित हुई थी।)

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