जादू नहीं, बड़ा राजनीतिक झटका

आंदोलन स्थल जरूर 'जंतर-मंतर' रहा है लेकिन यहाँ से जादुई चमत्कार नहीं हो सकता। वैसे भी महाराजा जयसिंह ने सूर्य-चंद्र की गति तथा ग्रहों के अनुसार सही समय का अंदाज लगाने के लिए दिल्ली, जयपुर, उज्जैन में वेधशालाएँ बनाईं और उन्हें 'यंत्र महल' कहा जाता रहा।

समय का चक्र घूमता रहा है और घूमता रहेगा। इसीलिए जन लोकपाल विधेयक का सही मसविदा बनाने के लिए सरकार से समझौते के बाद अनशन तोड़ते हुए समाज सुधारक अण्णा हजारे ने यही घोषणा की है कि यह आंदोलन का अंत नहीं, शुरुआत है। भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए पहले लोकपाल विधेयक का मसविदा बनेगा।

नवगठित समिति द्वारा तैयार किए जाते समय या मंत्रिमंडल में रखे जाने पर गड़बड़ी दिखते ही यह आंदोलन खड़ा हो जाएगा। फिर संसद में पारित होने पर रुकावट डाले जाने पर संसद की ओर मार्च करते हुए आंदोलन होगा।

यही नहीं, भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने, सत्ता के विकेंद्रीकरण, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने, चुनाव में सभी उम्मीदवारों के नाकाबिल दिखने पर नकारात्मक वोट डालकर फिर से चुनाव कराने जैसे मुद्दों पर जंतर-मंतर ही नहीं, पूरे देश में आंदोलन करने पड़ सकते हैं।

अण्णा हजारे की बात को इस बार भी गंभीरता से लेने की जरूरत है। मनमोहनसिंह की सरकार लोकपाल विधेयक पर उनकी चेतावनियों को हवा में उड़ाने के नतीजे देख चुकी है। अण्णा के 97 घंटों के अनशन-धरने के दौरान स्वामी रामदेव, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, भाजपा सांसद राम जेठमलानी के उग्र भाषणों, उन्मादी नारों और वहाँ जमा भीड़ के गुस्साए समर्थन को तात्कालिक टीवी क्लिपिंग समझ भुला नहीं देना चाहिए।

जंतर-मंतर पर हुई रिकॉर्डिंग को रिवाइंड कर देखने-समझने की कोशिश करें। मंच से कहा गया कि देश के सारे मंत्री-नेता चोर हैं- तो क्या करें? भीड़ से आवाज गूँजी फाँसी दो- फाँसी दो। विधेयक बनाने वाली कमेटी का अध्यक्ष क्या मंत्री होना मंजूर है? उत्तर मिला- नहीं- मंजूर नहीं। भारत में जन्मा हर व्यक्ति ऋषियों की संतान है-बाहर जन्मा क्या मंजूर है? नहीं- नहीं।

प्रारंभिक और समापन भाषणों के दौरान अण्णा हजारे बराबर आवाज लगाते रहे- 'क्या हम सचमुच आजाद हैं?' जनता उत्तर देती रही- 'नहीं- नहीं।' अण्णा ने अंत में कहा- 'काले अंग्रेजों को झुकना पड़ा। हमारी बात माननी पड़ी। हम दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं।'

स्वामी अग्निवेश ने लगातार याद दिलाया- 'यह तहरीर चौक (मिस्र में तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन) की पुनरावृत्ति है। सरकार और देश समझ ले।' लोकपाल विधेयक के लिए बनी समिति में अण्णा समूह की ओर से बने सह अध्यक्ष शांतिभूषण ने मंच से ही माना कि 'यह 1977 की पुनरावृत्ति है। इमरजेंसी से मुक्ति से अधिक उत्साह इस समय जनता में है।'

इस दृष्टि से अण्णा की लड़ाई के पहले चरण में जीत के क्या अर्थ निकाले जाएँ? कैंसर की तरह फैल गए भ्रष्टाचार से निजात पाने की लड़ाई निश्चित रूप से लंबी है। तो क्या मान लिया जाए कि अब हर बड़े कदम के लिए 1947 से पहले की तरह आंदोलन-धरने और जेल भरने की जरूरत होगी?

सरकार, संसद, प्रशासन तंत्र और न्यायपालिका के प्रति अविश्वास, नफरत तथा अवमानना का राष्ट्रव्यापी वातावरण बनाने के बाद राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था कैसे चलेगी? लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बहुत पहले "दलविहीन लोकतंत्र" की व्यापक रूपरेखा देश के सामने रखी थी।

यों आजादी के बाद 1947 में ही महात्मा गाँधी ने भी जनता की आवाज बुलंद रखने के लिए 'दलविहीन लोकतंत्र' की संभावना का उल्लेख किया था। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए दलीय और संसदीय लोकतंत्र को आवश्यक बताया। वैसे भी भारत के 6 लाख 50 हजार स्वतंत्र गाँवों का 'गणतंत्र' कितना व्यावहारिक हो सकता था?

स्विट्जरलैंड जैसे छोटे देशों में सरकार के हर महत्वपूर्ण फैसले के लिए जनमत संग्रह संभव है। लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन या भारत में क्या सत्ता का इतना विकेंद्रीकरण और खाड़ी के देशों की तरह भीड़ की आवाज के साथ 'फाँसी' की व्यवस्था संभव है? ब्रिटेन या अमेरिकी लोकतंत्र में समय-समय पर संविधान संशोधन होते रहे हैं।

सत्ता-व्यवस्था में अधिकाधिक पारदर्शिता और जवाबदेही के प्रावधान होते रहे हैं, लेकिन यह काम कबीलाई व्यवस्था की तरह भीड़ में आवाज लगाकर नहीं होता। भारत में प्रस्तावित 'लोकपाल' नियुक्त होने भर से रातोंरात भ्रष्टाचार रुक जाने का दिवास्वप्न देखना गलत होगा। निर्भर करेगा कि राजनीतिक व्यवस्था से जुड़े लोग उसकी परवाह करें। अन्यथा अदालतों के पास इस समय भी दंड के पर्याप्त कानूनी अधिकार हैं। निर्वाचन आयोग की कड़ी व्यवस्था के बावजूद राज्यसभा तक के चुनावों में करोड़ों रुपयों का खर्च कैसे जारी है?

असली समस्या राजनीतिक दलों द्वारा स्वयं के लिए आचार-संहिता तथा अनुशासन लागू करने की है। जंतर-मंतर पर राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध आक्रोश गहरा था, लेकिन कमान संभालने वाले स्वामी अग्निवेश और शांतिभूषण लंबे अर्से तक दलगत व्यवस्था के हिस्से रहे हैं। नवगठित समिति में अफसरों की बजाय मंत्रियों को रखने की बात पर अंततोगत्वा अण्णा हजारे ने ही जोर दिया। इसलिए देश के स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं द्वारा सौंपे गए लोकतांत्रिक व्यवस्था के कलश से विष और अमृत निकालने की रस्साकशी निरंतर जारी रखनी होगी।

कुछ क्रांतिकारी गाँधी की खादी या स्वामी दयानंद के भगवा वस्त्रों को पहनकर 'हर दोषी को फाँसी देने' का ऐलान भोले-भाले लोगों को भड़काने के लिए अवश्य कर सकते हैं, लेकिन किसी भी 'राम राज्य' में यह कलंक और पाप ही माना जाएगा। लोकतंत्र उन्माद से नहीं, जीवन मूल्यों से ही जीवित रह सकेगा।

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