गरीबी की लक्ष्मण रेखा

लेखक: - एल. आर. गाँधी

भारत से गरीब और गरीबी को मिटाने के भागीरथ परियास पिछले छह दशकों से जारी हैं … मगर गरीबी रेखा के साथ साथ ..गरीब हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं.

अब हमारे मोहन प्यारे जी ने अपने अर्थ शास्त्रों के विशाल अनुभव के बल पर अंतिम घोषणा कर दी है कि शहरों में ३२/- और ग्रामीण क्षत्रों में २६/- हर रोज़ खर्च करने वाले भारतीय नर-नारि अपने आप को गरीब कहना बंद कर दें ! सरकार के साथ और धोखा नहीं चलेगा … यूँ ही नकली गरीब बन कर सस्ते भाव राशन लूट कर सरकार को चूना लगाए जा रहे हैं. भला यह भी कोई बात हुई … एक गरीब को दो जून की रोटी के सिवा और चाहिए क्या ..६ रोटी , एक कटोरी दाल/ सब्जी… महज़ दो वक्त … मनमोहन जी के मनटेक सिंह जी ने बंगाली बाबू के साथ बैठ कर अपने पावर फुल आटा मंत्री से परामर्श कर एक भारतीय को जीने के लिए ज़रूरी दाल -रोटी का हिसाब लगा लिया है. वही ३२/- और २६/- … लो खींच दी … गरीब की गरीबी की ‘लक्ष्मण ‘ रेखा … अब इस रेखा के नीचे वालों को मिलेगा ‘सोनिया’ जी का अंग्रेजी में बोले तो ‘ राईट टू फ़ूड’ का उपहार.

यूं तो देश आज़ाद होते ही हमारे बापू के चहेते चाचा नेहरूजी ने देश से गरीबी, भुखमरी,असमानता,छूतछात ,भाई-भतीजाबाद और न जाने क्या क्या ख़तम करने की कसमें खाई थीं. पूरे १७ वर्ष अपनी इन कसमों – वादों को पूरा करने में गुज़ार दिए. मगर वह वादा ही क्या जो वफ़ा हो जाए ? फिर उनकी पुत्री प्रियदर्शनी इंदिरा जी देश के राज सिंघासन पर आरूढ़ हुई… १९७० में इंदिरा जी ने तो वादा नहीं ‘अहद’ ही कर लिया कि देश से गरीबी हटा कर ही दम लेंगीं … गरीबी रेखा का निर्धारण किया गया .. गरीबी हटाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे जी रहे ‘जीव-जंतुओं ‘ की पहचान भी तो ज़रूरी है भई. सो फैसला किया गया कि गाँव में एक ‘जीव’ के जिन्दा रहने लिए २४०० और शहरी ‘जीव’ को २१०० कैलोरी बहुत है. इसके लिए गाँव वासी को ६२/- और शहरी बाबु को ७१/- की दरकार है. जिसको हर रोज़ ६ रोटी, १ दाल/सब्जी दो वक्त नसीब हो जाए , वह गरीबी रेखा से नीचे भला कैसे गिना जा सकता है. फिर भी ३२ करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीच न मालूम कहाँ से निकल आये .

अब राज परिवार द्वारा निर्धारित ‘ दो जून की रोटी’ के आधार पर हमारे राज भक्त कांग्रेसी हुक्मरान गरीबी रेखा खींचते चले आ रहे हैं. सन २००० में ग्रामीणों के लिए ३२८/- प्रति माह और शहरियों के लिए ४५४/- प्रतिमाह निर्धारित हुए और २००४ आते आते विकराल महंगाई को विचारते हुए इसे क्रमशय: ४५४ और ५४० कर दिया गया .

मनमोहन जी ने आज इसे जब प्रति दिन २६/- -३२/- कर दिया तो हमारे मिडिया वाले मंहगाई का रोना रो रहे हैं … और अपना भूल गए जब हुक्मरानों के साथ संसद की कैंटीन में १/- का चाए का कप, २/- में खाना, १/- में चपाती और वह भी ‘पवार’ की भांति फूली हुई , डेढ़ रूपए में दाल की कटोरी ,५.५० /- में सूप का प्याला , ४/- में चिदम्बरम शाही डोसा ,८/- में अब्दुल्लाह शाही बिरियानी , २४.५० /- मनमोहन शाही पंजाबी मुर्गा और १३/- में राजा शाही फिश प्लेट …मज़े ले ले कर खाते हैं.

जब देश पर राज करने वाले हमारे सांसद जिनकी अपनी तनखाह मात्र ८००००/- प्रति माह है और बिना टैक्स के लाखों की अन्य सुविधाएं सो अलग , इतने सस्ते भोजन को पूरे प्यार और सत्कार से चुप चाप खा लेते हैं तो फिर इन गरीबी रेखा से नीचे वालों को २६/- और ३२/- रूपए में गुज़र बसर करने में क्या तकलीफ है. फिर हमारी महारानी उनके लिए एक और बिल लाने जा रहीं हैं ‘राईट टू फ़ूड ‘ ताकि खाने पर सबका हक़ हो – हमारे सांसदों की भांति … फिर भी यदि कोई गरीबी रेखा से नीचे ही जीने का शौक पाले बैठा हो तो हमारे अमूल बेबी … ‘राजकुमार’ क्या कर सकते हैं. बकौल ग़ालिब ….

वह रे ग़ालिब तेरी फाका मस्तियाँ
वो खाना सूखे टुकड़े भिगो कर शराब में

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